मैं वैली स्कूल में आई. सी. एस. ई में भी हिंदी पढ़ाती हूँ । इस बोर्ड के हिंदी पेपर में कहावत के ऊपर एक निबंध पूछा जाता है । बच्चों से कई सारी कहावतों पर निबंध लिखाना मुश्किल है इसलिए हर छात्र-छात्रा को अलग-अलग कहावत दी जाती है जिस पर वे निबंध लिखते हैं और फिर कक्षा में सब छात्र-छात्राएँ अपने लिखे निबंध पढ़ते हैं जिससे सबको कहावतें भी समझ आ जाएँ और परीक्षा में उन्हें कोई मुश्किल न हो । इन कहावतों पर लिखे निबंधों को छात्र-छात्रों को सुनाया जा सकता है या उन्हें पढ़ने के लिए दिया जा सकता है जिससे उन्हें कहावतों का अर्थ अच्छी तरह से समझ आ सके । हर कहावत के आगे वर्ष लिखा गया है , इसका मतलब है कि यह कहावत बोर्ड में उस वर्ष में पूछी गई है । आशा है कि यह सामग्री अध्यापकों और अध्यापिकाओं के साथ-साथ छात्र-छात्राओं के लिए भी उपयोगी होगी ।
सत्य की कभी हार नहीं
होती (आनया) 2007
सोमवार की
सुबह रमेश अपनी गाड़ी पर सवार होकर अपने आफिस की तरफ निकला । ट्रेफिक काफी था और वह
एक सिगनल पर रुका हुआ था । वह सिगनल तीन मिनट का था । अचानक एक मोटर-बाइक पर सवार
एक व्यक्ति से रहा नहीं गया और वह सिगनल की परवाह न करते हुए आगे बढ़ गया । रमेश यह
देखकर सोचने लगा कि तीन मिनट इंतज़ार कर लोग अगर कानून नहीं तोड़ेंगे, तो सड़क पर हम
सब लोग सुरक्षित रहेंगे ।
रमेश
कानून मानने वाला व्यक्ति था । रमेश विश्वास करता था कि कानून हमें सुरक्षित रखने
के लिए बनाया गया है और अगर हम सब कानून मानेंगे तो हम सब सुरक्षित और खुश रहेंगे
। जब वह शाम में घर पहुँचा तो एक पत्र उसका इंतज़ार कर रहा था । पत्र में लिखा था
कि रमेश ने पाँच दिसंबर को गान्धी नगर सिगनल पर कानून तोड़ा था और उसे दो सौ रुपए
जुर्माना देना था । रमेश यह खबर पाकर आश्चर्यचकित हो गया क्योंकि उस दिन वह शहर
में नहीं था ।
रमेश ने
तुरन्त अपने पिता को फोन लगाया और उनसे पूछा कि उन्होंने पाँच दिसंबर को उसकी गाड़ी
का इस्तेमाल किया था या नहीं । उसके पिता जी से बात करने पर उसे यह मालूम हुआ कि
उस हफ्ते उनकी तबीयत काफी खराब थी और वह घर में ही थे ।
रमेश सीधा
पुलिस स्टेशन गया और इन्हेम बताया कि पाँच दिसंबर को उसकी गाड़ी गान्धीनगर में नहीं
थी, मगर पुलिस वालों ने उसकी बात नहीं सुनी और रमेश दो सौ रुपए जुर्माना देकर घर
वापिस चला गया । एक हफ्ते बाद रमेश को फिर से पुलिस की तरफ से एक पत्र मिला जिसमें
उसे पाँच सौ रुपए जुर्माने की बात लिखी हुई थी । रमेश फिर से पुलिस चौकी गया और उन
पुलिस वालों को सच्चाई बताने की कोशिश की , मगर किसी ने उसकी एक न सुनी । ऐसे ही
उसे तीन और पत्र आए और जुर्माने की राशि बढ़ती चली गई । रमेश को समझ नहीं आ रहा था
कि उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा था । पुलिस वाले भी उसकी सच्चाई मानने को तैयार नहीं
थे ।
परेशान
होकर रमेश ने ठान लिया कि वह इसकी खोज खुद करेगा और अपनी सच्चाई को साबित करके
रहेगा । सारे जुर्माना गान्धी नगर पुलिस स्टेशन के द्वारा लगाए गए थे । रमेश ने उस
इलाके के काफी चक्कर मारे मगर उसे कोई दुसरी गाड़ी नहीं मिली । महीने भर खोजने के
बाद वह पुलिस चौकी पहुँचा और उनसे उस गाड़ी की फोटो माँगी जिसे दंडित किया गया था ।
काफी चक्कर काटने के बाद उसे आखिरकार उस गाड़ि की तस्वीरें मिलीं । गाड़ी का नंबर
उसका था, मगर गाड़ि कोई और थी । उसने यह बात पुलिस वालों को बताई और उन्हें
तस्वीरें भी दिखाईं, तब जाकर उसकी सच्चाई सामने आईं । कुछ दिनों बाद पुलिस ने उस
गिरोह को पकड़ लिया जो दूसरी गाड़ियों का नंबर अपनी गाड़ि पर लगाकर उन्हें गल्त कामों
के लिए इस्तेमाल करते थे । रमेश को पुलिस ने जुर्माने के सारे पैसे लौटाए तथा साथ
में उस गिरोह को पकड़ने के लिए पुरस्कार दिया । सच ही है कि "सत्य की कभी हार
नहीं होती ।"
सत्य की कभी हार नहीं होती
(एशना)
कबीर और
सुनील बहुत अच्छे दोस्त थे। दोनों एक-दूसरे की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते
थे । वे एक-दूसरे से कुछ भी छिपाते नहीं हैं । अगर कोई छिपाने की कोशिश करे भी ,
तो दूसरा उस झूठ को पकड़ लेता था । दोनों के बीच लड़ाई होती थी मगर वह लड़ाई
होते-होते चला जाता था ।
एक दिन
कबीर के घर में दावत हो रही थी । उनकी माँ के कहने पर उसे दावत से पहले ही अपना
गृहकार्य खत्म करना था । माँ की बात न मानकर कबीर चुप-चुप बाहर खेलने चला गया । घर
आकर उसने झट से अपने कपड़े बदले और अपने मुँह पर लगी हुई मिट्टी धो दी । दावत अच्छी
थी, कबीर की माँ ने बहुत सारी चीज़ें बनाईं थीं खासकर मिठाई में । उन्होंने जलेबी,
हलवा, रसगुल्ले और बहुत-सी चीज़ें बनाईं थीं ।
अगले दिन
सुनील कबीर के घर गया । सुनील ने कबीर से पूछा," क्या तुमने गृहकार्य
किया?" कबीर ने अचानक बोला," अरे! मैं तो भूल ही गया । अब मैं क्या
करूँ?" सुनील ने अपना बस्ता खोलकर एक किताब निकाली । उसे खोलते हुए
बोला," लो, यह लिख लो । अब तुम्हें मेरे समान ही अंक मिलेंगे ।" कबीर ने
अपनी किताब निकाली और उसकी किताब से लिखना शुरु किया ।
कक्षा में
अध्यापक ने जब गृहकार्य के लिए पूछा तो सब एक के बाद एक देने लगे । कबीर के चेहरे
पर डरा हुआ भाव दिखाई दे रहा था । दिन के अन्त तक उसके चेहरे पर वही भाव बना रहा ।
घंटी बजने से पहले अध्यापक ने सबको उनकी किताबें दे दीं । कबीर के हाथ में किताब
आने से पहले उसने मंत्र पाठ करना शुरु कर दिया । आँखें खोलकर देखा तो उसे दस में
से नौ अंक मिले थे । उसके मुँह पर एक बड़ी-सी मुसकान छा गई । वह तेज़ी से दौड़कर
सुनील के पास गया । सुनील का चेहरा कुछ दु:खी लग रहा था । उसकी किताब में झाँक कर
कबीर ने देखा तो पता चला कि सुनील को दस में से पाँच अंक मिले थे । "मगर यह
कैसे हो सकता है? मुझे नौ और तुम्हें पाँच!" अपने दोस्त के दु:खी चेहरे को
देखकर इस नाइन्साफी को ठीक करने के लिए कबीर अपने अध्यापक के कमरे की तरफ दौड़ा ।
"सर,
क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?" कबीर ने पूछा । "ज़रूर" - अध्यापक ने
सहजता से कहा । कबीर ने अन्दर आकर अध्यापक के सामने खड़े होकर पूरी कहानी एक ही
साँस में कह दी । "मैं नाराज़ हूँ तुमसे कबीर ! मगर खुश भी हूँ कि तुमने सच
बोला । अपने दोस्त से बोलो कि वह उस पाँच को नौ अंकों में बदल दे ।" "और
मेरे अंक , सर!" कबीर ने डरते हुए पूछा । "तुम्हें इस गृहकार्य के लिए
अंक नहीं मिलेंगे । लेकिन सच बोलने के लिए तुम्हारे पूरे वर्ष के अंकों को मैं बढ़ा
दूँगा ।" कबीर ने खुश होकर कमरे से दौड़कर अपने दोस्त को उसके अंक के बारे में
बताया । सुनील कबीर को यह बात सुनकर तुरन्त उसे गले से लगा लिया और दोनों दोस्तों
ने साथ मिलकर पाँच अंकों को नौ में बदला । सच ही है कि सत्य की कभी हार नहीं होती
। कबीर ने सत्य बोल कर जीत हासिल की ।
ggoooodddddd :-) :-) :=)
ReplyDeleteGood
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