Monday, March 31, 2014

Story on proverb- Jaan bachi to lakhon paie/ जान बची तो लाखों पाए


मैं वैली स्कूल में आई. सी. एस. ई  में भी हिंदी पढ़ाती हूँ । इस बोर्ड के हिंदी पेपर में कहावत के ऊपर एक निबंध पूछा जाता है । बच्चों से कई सारी  कहावतों पर निबंध लिखाना मुश्किल है इसलिए हर छात्र-छात्रा को अलग-अलग कहावत दी जाती है जिस पर वे निबंध लिखते हैं और फिर कक्षा में सब छात्र-छात्राएँ अपने लिखे निबंध पढ़ते हैं जिससे सबको कहावतें भी समझ आ जाएँ और परीक्षा में उन्हें कोई मुश्किल न हो । इन कहावतों पर लिखे निबंधों को छात्र-छात्रों को सुनाया जा सकता है या उन्हें पढ़ने के लिए दिया जा सकता है जिससे उन्हें कहावतों का अर्थ अच्छी तरह से समझ आ सके । हर कहावत के आगे वर्ष लिखा गया है , इसका मतलब है कि यह कहावत बोर्ड में उस वर्ष में पूछी गई है । आशा है कि यह सामग्री अध्यापकों और अध्यापिकाओं के साथ-साथ छात्र-छात्राओं के लिए भी उपयोगी होगी । 





 जान बची तो लाखों पाए (शमीर) 2012

आज हमें स्कूल में बहुत सारा गृहकार्य मिला था । हर विषय पर मिला था - हिन्दी ,गणित, अंग्रेजी, जीवविज्ञान और छठा विषय । घर आने पर मैंने मुँह-हाथ धोया, खाना खाया और फिर बाहर खेलने चला गया । मुझे बहुत मज़ा आ रहा था फिर मुझे याद आया कि घर पर मेरा गृहकार्य मेरा इंतज़ार कर रहा है ।
भागा-भागा में घर पहुँचा । भागने की वजह से में थक गया था । इस कारण मैं पानि पीने और पसीना सुखाने पंखे के नीचे बैठ गया । ठंडी हवा से मुझे बहुत आराम मिला । इस से मुझे नीन्द आ गई । मुझे सोते-सोते एक सपना आया कि मीनल आँटी मुझे डाँट रही हैं , यह देख कर मैं चौंक कर उठा और मुझे याद आया कि मेरी किताबें मेरा इंतज़ार कर रही हैं ।
मैं तुरन्त अपने कमरे में गया और पढ़ने बैठ गया पर जैसे ही मैंने काम करना शुरु किया वैसे ही माँ ने मुझे खाने के लिए बुला लिया । खाना बहुत अच्छा था पर डर के मारे मैं उसे निगल नहीं पा रहा था । मैंने जल्दी से खाना खत्म किया और अपने कमरे में गया जैसे ही मैंने काम शुरु किया वैसे ही मेहमान आ गए । मैं सबसे अच्छी तरह से मिला । मुझे बहुत सारे तोहफे भी मिले । ऊपर से तो मैं हँस रहा था पर अंदर से मुझे पछतावा हो रहा था । मुझे पछतावा इस बात का था कि मैंने अपना काम पूरा नहीं किया था । मेहमानों के जाने के बाद में देर रात तक काम करता रहा । रात के बारह बजे मुझे बहुत ज़ोर की नींद आने लगी पर मैं अपनी नींद से लड़ते हुए काम करता रहा । पर मेरी आँखें बंद हो गईं और नींद ने मुझे मेरे लक्ष्य से हटा दिया ।
जब मैं सुबह उठा तो मैं डर के मारे स्कूल  नहीं जाना चाहता था । माँ भी सो रही थीं । फिर मुझे एक कहावत याद आयीं कि हमें अपनी गल्ती से भागना नहीं चाहिए, हमें उसका सामना करना चाहिए । मैं अपनी हिम्मत जुटा कर बस्ता बाँधा और स्कूल गया ।
स्कूल पहुँचते ही मुझे पता चला कि आज स्कूल नहीं है । तब मुझे यह कहावत याद आई, "जान बची तो लाखों पाए ।" 

जान बची तो लाखों पाए (स्नेहा)
चार साल पहले की बात है । मैं और मेरे दोस्त नेहा, हर्षल, शीतल, राम, वेद एक साथ एक यात्रा पर जाने की सोच रहे थे पर हर वक्त किसी न किसी वजय से हम सब न जा सके । फिर एक दिन जब हम सब मिले तो हमने फिर से इसके बारे में सोचा । अंत में हमने निर्णय लिया कि हम दस दिन के बाद यहाँ से तिब्बत जाएंगे और वहाँ से एक गाँव में ।
जैसे-जैसे हमारा जाने का दिन पास आने लगा, मैं खुशी से फूली न समाने लगी । मैंने सुना था कि वो जगह बहुत सुंदर है और वहाँ के लोग बहुत अच्छे थे । मैंने यह जगह पहले कभी नहीं देखी थी , न ही इस जगह के बारे में ज़्यादा कुछ सुना था । हम सोमवार सुबह अपने-अपने घरों से निकल गए और दो दिन के बाद तिब्बत पहुँच गए थे । यह बहुत ही सुन्दर जगह थी और यहाँ का मौसम ठंडा और अच्छा था कि बाहर रहने को ही मन करता था ।
पहले दिन मह वहीं थे । हमने आस-पास की जगहों पर कुछ खरीदा, खाया-पिया और अगले दिन बहुत घूमे । हमन वहाँ बहुत मज़ा किया था । तीसरे दिन हम कारें लेकर एक जगह गए थे जो दो-तीन घंटे दूर थीं । वहाँ हम एक होटल में रुके । वह जगह इतनी सुन्दर थी कि वहाँ से जाने का मन ही नहीं करता था । देखते-देखते पूरा दिन बीत गया । अगले दिन हम चार बजे उठे और वहाँ से ट्रेक के लिए चल पड़े ।
हम दो समूह में बँट गए थे और मैं पहले समूह में थी । हमारी टीम आगे निकल गई थी और वे काफी पीछे थे । यह ट्रेक काफी लंबा था, यह ट्रेक पूरा करने में हमें थोड़े दिन लगने वाले थे । हम चलते गए पर हम थोड़ा गुम गए थे और यह बात हमें पता नहीं चली । पर जब शाम होने को थी, हम तो अब तक तो अपने कैम्प पहुँच जाना चाहिए था । यह बात हमारे मन में आई तो अब हमें पता चला कि हम गुम गए हैं । यहाँ आस-पास लोग भी नज़र नहीं आ रहे थे । हम सब परेशान हो गए और घबराने लगे । हमारे पीछे जो समूह था वह समझ रहा होगा कि हम अब तक अपने कैम्प पहुँच गए हैं । उन्हें क्या पता था कि हम यहाँ फँसे हैं ।

अब तक रात हो गई थी , हमारे पास ज़्यादा खाना भी नहीं था । अगले दिन्ल हम सुबह-सुबह फिर से चल पड़े । हम सिर्फ चलते रहे पर काफी चलने के बाद भी हमें कोई भी व्यक्ति नहीं दिखाई दिया । मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं अपने घर वापिस कभी नहीं जा सकूँगी । अगले दिन हमें एक घर दिखाई दिया । हमें उनसे पता चला कि हमारा कैम्प सात-आठ किलोमीटर आगे है । आखिरकार शाम तक हम कैम्प पहुँच ही गए । हम बहुत नसीब वाले थे कि हम वहाँ सुरक्षित पहुँच गए । हम जिस हालत में थे, मुझे लगा कि हम नहीं पहुँच पाएँगे । घर पहुँचकर मुझे लगाकि जान बची तो लाखों पाए ।




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