Monday, March 31, 2014

Story on proverb - Asaphalta hi saphalta ki sidiyan hain/ असफलता ही सफलता की सीढ़ियाँ हैं |


मैं वैली स्कूल में आई. सी. एस. ई  में भी हिंदी पढ़ाती हूँ । इस बोर्ड के हिंदी पेपर में कहावत के ऊपर एक निबंध पूछा जाता है । बच्चों से कई सारी  कहावतों पर निबंध लिखाना मुश्किल है इसलिए हर छात्र-छात्रा को अलग-अलग कहावत दी जाती है जिस पर वे निबंध लिखते हैं और फिर कक्षा में सब छात्र-छात्राएँ अपने लिखे निबंध पढ़ते हैं जिससे सबको कहावतें भी समझ आ जाएँ और परीक्षा में उन्हें कोई मुश्किल न हो । इन कहावतों पर लिखे निबंधों को छात्र-छात्रों को सुनाया जा सकता है या उन्हें पढ़ने के लिए दिया जा सकता है जिससे उन्हें कहावतों का अर्थ अच्छी तरह से समझ आ सके । हर कहावत के आगे वर्ष लिखा गया है , इसका मतलब है कि यह कहावत बोर्ड में उस वर्ष में पूछी गई है । आशा है कि यह सामग्री अध्यापकों और अध्यापिकाओं के साथ-साथ छात्र-छात्राओं के लिए भी उपयोगी होगी । 





असफलता ही सफलता की सीढ़ियाँ हैं | ((आयुष) 1994
आज हमारी हिन्दी की परीक्षा थी । मैंने सुबह-सुबह उठकर पढ़ना शुरु कर दिया था । मैं नहाना तक भूल गया था । मैं नाश्ता करना भी भूल गया केवल मुझे दो चीज़ें याद रहीं और वे थीं- मंजन करना और भगवान के दर्शन करना । पर मुझे पता था कि सिर्फ भगवान के आशीर्वाद से कुछ नहीं होगा । मुझे चाहिए भगवा, माता-पिता और अध्यापक -सभी का आशीर्वाद। पर हाँ, मुझे पढ़ना भी पड़ेगा । अब मैं बस की तरफ जा रहा था ।
बस स्टाप पर मैं बस का इंतज़ार कर रहा था । जैसे ही बस आई , तो मैंने देखा कि हिन्दी विद्यार्थी पढ़ रहे थे । देखा जाए तो यह ज़्यादा आश्चर्य की बात नहीं थी क्योंकि हिन्दी एक ऐसा विषय है जिसमें अंक लाना मुश्किल है । सब पढ़ रहे थे कि कोई चिल्लाया "काकरोच" । हमने देखा तो एक कोकरोच नहीं था । मेरा बस चलता तो मैं उसका भुरता बना देता । हम जल्दी ही स्कूल पहुँचने वाले थे ।
जब हम स्कूल पहुँचे तो देखा कि एसेंबली में एक गीतकार गाने वाले थे । हमने अपने कक्षाध्यापक से पूछा कि अगर इस कार्यक्रम को छोड़कर हम पढ़ सकते हैं । तो उन्होंने कहा ,"तुम्हें घर पर पढ़ कर आना चाहिए ।" मैंने सोचा क्यों न गलत रास्ता पकड़ा जाए । मैंने यह सोच सब को बता दी किय क्यों न हम एसेंबली में ही चुपके से पढ़ाई करें । बहुत लोगों को लगा कि यह गलत और मुश्किल काम है पर पढ़ने का यही एक रास्ता था । हम यह काम करने में कामयाब रहे । हिन्दी का पीरियद पांचवा था । हमने पहले चार पीरियड में वैसा ही किया जैसा असेंबली में किया था ।
अब आया हिन्दी का पीरियद । हम इतने बेचैन थे कि हम मीनल आंटी को नमस्ते करना भूल गये । आंटी ने हमें टेस्ट पेपर दिए । पहला सवाल था कि चार विषयों में से एक विषय चुन कर उस पर एक निबंध लिखिए । दूसरा सवाल था कि दो विषयों में से एक विषय चुनकर उस पर एक पत्र लिखिए । मैंने जल्दी ही निबंध और पत्र लिख दिया और पेपर दे दिया । कुछ दिनों के बाद जब परिणाम आए तो पता चला कि मुझे बहुत कम अंक मिले हैं । मुझे बुरा लगा । मैंने क्या गलत किया ? फिर मैंने अपनी गलतियों को सुधारा और पढ़ाई भी बहुत की ।
अगली परीक्षा में भी मुझे वही सवाल करने थे । इस बार मैंने दस मिनट सोचा कि मैं क्या और कैसे लिखूँ । फिर मैंने लिखना शुरु किया । इस बार मुझे अच्छे अंक मिले ।
इस तरह मैं सीख गया और समझ भी गया कि "असफलता ही सफलता की सीढ़ियाँ हैं "। हमें हार नहीं माननी चाहिए, प्रयत्न करते रहना चाहिए । एक बार असफल होने से या कई बार असफल होने से मन मसोस कर न रहना चाहिए । कोशिश करती रहनी चाहिए तो असफलता के बाद भी सफलता मिलती है ।  

असफलताएँ ही सफलता की सीढ़ियाँ हैं   (सिन्दूरा)
सब को पता है कि असफलताएँ ही सफलता की सीढ़ियाँ हैं । इस दुनिया में कई सारे लोग हैं जो यह बात सिद्ध कर सकते हैं और हमें विश्वास दिला सकते हैं कि हमें कभी भी कोशिश करने में रुकना नहीं है । ये लोग हैं- एक अध्यापिका ने कक्षा में एक बालक को डाँटा और कहा कि उसे गणित की ओर ध्यान देना चाहिए क्योंकि वह छोटा-सा सवाल भी गल्त करता है और यह भी कहा कि वह काम में ज़्यादा ध्यान नहीं रखता तो वह ज़िन्दगी में कुछ नहीं बन सकता है । वह लड़का आइन्स्टाइन था ।
जब थामस एडीसन ने बिजली के बल्ब की खोज की थी । उसने ना जाने कितनी बार कोशिश की थी और जब एक रिपोर्टर ने उनसे सवाल पूछा कि इतनी बार हारने के बाद वे कैसा अनुभव करते हैं तो उन्होंने कहा कि दो हज़ार बार किए प्रयोग असफल नहीं थे , वे तो दो हज़ार कदम उन्होंने बिजली के बल्ब की सफलता की तरफ जाने के लिए लिए थे ।
१९४० में चेस्टर कार्लसोन ने अपने काम को बीस कम्पनियों के पास जाकर दिखाया पर सबने उसके काम को अस्वीकार कर दिया । काफी सालों के बाद उसके कामा को स्वीकारा गया । ऐसे ही बाईस बच्चों में एक बच्ची थी जिसे देखकर लोगों को लग रहा था किव वह मर जाएगी क्योंकि चार सालों से उसे बड़ा ही भयानक रोग लग गया था । इस बीमारी की वजह से उसकी बाँईं टाँग भी काटनी पड़ी थी । जब वह नौ साल की हो गई तो उसने उस यंत्र को भी निकाल दिया जो उसे चलने में सहायता देता था और बिना यंत्र के वह चलने लगी । तेरह साल तक वह अच्छी तरह से चलने लगी और डाक्टर ने भी कहा कि यह सब एक चमत्कार था । उसी साल उसने दौड़ में भाग लिया पर जीत न पाई पर उसने हार न मानी, हर साल वह दौड़ में भाग लेती रही । आखिर वह दिन आ ही गया जब वह प्रथम आई और हर साल प्रथमा आती रही । ओलम्पिक खेलों में उसे सोने के तीन मैडल मिले। इस लड़की का न आम "पिलमा रूडोल्फ" है ।

हमें यह सीख मिलती है कि असफलता मिलने पर किसी भी इन्सान को हार नहीं माननी चाहिए, मगर उनको यह समझना चाहिए कि जितनी बार हमें असफलता मिलेगी, वास्तव में हम उतनी बार सफलता की सीढ़ियाँ ऊँचा चढ़ रहे हैं और एक दिन ज़रूर हर इन्सान सफलता की रोशनी को देखेगा ।

1 comment:

  1. Respected Madam,
    The essay which was given as in writing is not properly understandable because the picture quality of the third page is not good .
    Thereby I request you that it will be a great help to me if you can improve the picture quality of the page.
    Thanking you,
    Suman Purohit

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